गुरुवार, जुलाई 29, 2010

हम हिंदी वीर

बहस छिड़ी थी
दिल्ली में हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों में
प्रयोग हो हिंदी का
मंच पर विराजमान
नेता, साहित्यकार, नेता -साहित्यकार
साहित्यकार से नेता और फिर नेता से साहित्यकार बने
सज्जन ने नाम पुकारा एक हिंदी प्रेमी नेता का
नेताजी माइक लपकते ही गलाफाड़ आसन में
'नहीं होने देंगे हिंदी के बिना कामनवेल्थ गेम्स
चाहे जो हो जाये॥
बगल से आवाज आई कामनवेल्थ गेम्स या राष्ट्रमंडल खेल
रो में बहे नेताजी अनसुना कर गए
बोले- ओपनिंग और क्लोजिंग सरेमोनी हिंदी में ही हो
नहीं तो हम पार्लियामेंट नहीं चलने देंगे
इस बार
उदघाटन और समापन की कानाफूसी नहीं हुई
घूम कर देखा तो
बगल की दो कुर्सियां खाली हो चुकी थी
नेताजी भी अपनी कुर्सी पर बैठे पसीना पोंछ रहे थे
प्लेट, चम्मचों की कहासुनी
देखा तो नौ बज चुके थे
कैमरामैन को पैकअप का इशारा कर
डिनर प्लेटों को हथियार बना
मैं भी लड़ रहा था
अस्तित्व की जंग
हिंदुस्तान में हिंदी की तरह

3 टिप्‍पणियां:

Dr.Ajit ने कहा…

हिन्दी की दयनीय हालत पर अच्छा व्यंग्य लिखा है आपने...लेकिन कविता की शक्ल मे क्यों?

डा.अजीत

vipul sharma ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
vipul sharma ने कहा…

I am happy to read that you are concern about the national language. But I think that the way Hindi doing these days is all because of us. We are not able to make Hindi viable to all.We in the media will write few article to catch the eye ball of some but not able to make this language as a brand. I must ask u except writing article what else you have done to promote this language?