रविवार, दिसंबर 23, 2012

दामिनी..हमारे कुतरे नाखून हैं   

जिस बस में 
तुम्हारे साथ दरिंदगी की गयी 
उन सीटों पर छह दरिंदों के 
निशान ही नहीं है 
दरअसल तुमने भी देखा होगा उन धब्बों को
इससे पहले आते जाते बसों में  
इसलिए मैं जुर्म कुबूल करता हूँ 
क्योंकि 
दरिंदगी के पंजों में लहू हमारा ही तो है  
तभी तो तुम लहूलुहान होती रही हो 
कभी चलती बस में 
कभी किसी वैन में 
और कभी स्कूल में 
हम उठे है 
अखबार में रात की दरिंदगी के निशान खोजने 
और सो गए हैं आँखों से हकीकत खुरचकर 
हम कभी निकले नहीं घरों से तुम्हारे लिए 
या शायद हम अपने घरों में ही नंगे हो चुके हैं 
बहुत पहले 
माफ़ करना इस बार भी 
हम वापस लौट जायेंगे 
तुम्हें ही लड़ना होगा
अस्पताल से निकलकर 
दरिंदगी के पंजे
घूम रहे हैं बसों में पहले की तरह 
तुम्हें बस में करने को 
लेकिन 
मुझे भरोसा है 
तुममे साहस पैदा हो गया होगा  
तुम्हारे भी उग आये होंगे नुकीले नाखून 
हे दामिनी- 
हम अपने घरों में ही कुतर चुके हैं अपने नाख़ून 
भला 
कुतरे नाखून तुम्हारी मदद को क्या आयेंगे 
------दिल्ली में हुए गैंगरेप ने सबकुछ झकझोर दिया है पांच साल की बेटी और पत्नी दोनों दिन में कई बार टीवी खोलकर सफदरजंग अस्पताल से आने वाली खबर पर नज़र बनाये रहती हैं पत्नी फोन करके जब मुझसे कुछ पूछना या कुछ बताना चाहती है और मैं फोन उठा नहीं पता हूँ।