शुक्रवार, मार्च 29, 2013

कमरे की खिड़की से 
बाहर झांकता हूँ तो 
बिटिया 
कुम्लाये गुलाब में 
पानी दे रही थी 
बेटी रहने दे क्यों काँटों को सींच रही हो 
मैंने कहा 
बिटिया कहती है 
पापा कांटे हैं तो फूल भी आयेंगे  
मैंने कहा बेटी कांटे रह जायेंगे 
इस गुलाब के फूल की आस में 
कई गुलदान हैं  
इस साल 18 की हो रही बिटिया 
जल्दी से बाल्टी का पानी 
गमले में उड़ेलती है 
मैं खिड़की से अन्दर झांकता हूँ 
और 
 काँटों से लहूलुहान उँगलियों के पोर 
मेरी कमीज को लहूलुहान करते जा रहे हैं 
आँखें दीवार पर टंगे कलेंडर पर टिकती हैं 
और मैं 65 वर्षों के हिसाब-किताब में खो
रहा हूँ