मांगने से रास्ता मिल नही रहा था अब छीनने की ज़िद पाली है...
गुरुवार, जुलाई 22, 2010
आग...कहीं झुलस ना...
ये आग की लपटें सर्पिणी हैं जो मुझे निगल जाने को आतुर हैं या मेरे सीने की पिघलती लावा उगलती मृगतृष्णा जो मांग रही कस्तूरी विक्टर बनने की कि कहते हैं ये सिटी है विकटअर्स की...
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