सोमवार, अगस्त 16, 2010

निर्वात के सन्नाटे में कोलाहल

लगता है जिस्म से एक कतरा अपना काट लिया हो मैंने ही किसी ने खुद पर घाव करने को मजबूर कर दिया हो जैसे क्यों ऐसा होता है कि हम मिलते हैं तो भोर कि उजास लिए मिलते हैं और बिछड़ते हैं तो संध्या की निराश धूल पुते चेहरे लेकर पीठ के नंबर दिखा देते हैं लेकिन क्या बिछड़ने की पीड़ा किसी एक की हो सकती है या जिसे गुनाहगार हम कहें वो ही गुनाहगार हो जाये

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